दिल्ली का उत्तराधिकार
महाराजा अनंगपाल के यहाँ कोई पुत्र नहीं था इसकी चिंता उन्हें दिन रत
रहती की उनके बाद दिल्ली का उत्तराधिकार कौन संभालेगा। यही विचार कर
उन्होंने अपनी पुत्री के समक्ष पृथ्वीराज को दिल्ली का युवराज बनाने की बात
कही। फिर उन्होंने अपने दामाद
अजमेर
के महाराजा सोमेश्वर से भी इस बारे में विचार-विमर्श किया। राजा सोमेश्वर
और रानी कर्पूरी देवी ने इसके लिए अपनी सहमती प्रदान कर दी जिसके फलसवरूप
पृथ्वीराज को
दिल्ली
का युवराज घोषित कर दिया गया। 1166 ई० में दिल्लीपति महाराज अनंगपाल की
मृत्यु के बाद पृथ्वीराज को विधि पूर्वक दिल्ली का उत्त्रदयितव सौप दिया
गया।
विद्रोही नागार्जुन का अंत : जब महाराज अनंगपाल की मृत्यु हुयी
उस समय बालक पृथ्वीराज की आयु मात्र ११ वर्ष थी। अनंगपाल का एक निकट
सम्बन्धी था विग्रह्राज। विग्रह्राज के पुत्र नागार्जुन को पृथ्वीराज का
दिल्लिअधिपति बनाना बिलकुल अच्छा नहीं लगा। उसकी इच्छा अनंगपाल की मृत्यु
के बाद स्वयं गद्दी पर बैठने की थी, परन्तु जब अनंगपाल ने अपने जीवित रहते
ही पृथ्वीराज को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया तो उसके हृदय में विद्रोह
की लहरे मचलने लगी। महाराज की मत्यु होते ही उसके विद्रोह का लावा फुट
पड़ा। उसने सोचा के पृथ्वीराज मात्र ग्यारह वर्ष का बालक है और युद्ध के
नाम से ही घबरा जायेगा। नागार्जुन का विचार सत्य से एकदम विपरीत था।
पृथ्वीराज बालक तो जरुर था पर उसके साथ उसकी माता कर्पूरी देवी का आशीर्वाद
और प्रधानमंत्री एवं सेनाध्यक्ष कमासा का रण कौशल साथ था। विद्रोही
नागार्जुन ने शीघ्र ही गुडपुरा (अजमेर) पर चढाई कर दी। गुडपुरा (
अजमेर)
के सेनिको ने जल्दी ही नागार्जुन के समक्ष अपने हथियार डाल दिए। अब
नागार्जुन का साहस दोगुना हो गया। दिल्ली और अजमेर के विद्रोहियों पर
शिकंजा कसने के बाद सेनापति कमासा ने गुडपुरा की और विशाल सेना लेकर
प्रस्थान किया। नागार्जुन भी भयभीत हुए बिना अपनी सेना के साथ कमासा से
युद्ध करने के लिए मैदान में आ डाटा। दोनों तरफ से सैनिक बड़ी वीरता से
लड़े। अंतत: वही हुआ जिसकी सम्भावना थी। कमासा की तलवार के सामने नागार्जुन
का प्राणांत हो गया।
पृथ्वीराज चौहान और संयोगिता की प्रेमकथा
पृथ्वीराज चौहान और संयोगिता की प्रेमकथा राजस्थान के इतिहास में स्वर्ण
से अंकित है। वीर राजपूत जवान पृथ्वीराज चौहान को उनके नाना सा. ने गोद
लिया था। वर्षों दिल्ली का शासन सुचारु रूप से चलाने वाले पृथ्वीराज को
कन्नौज के महाराज जयचंद की पुत्री संयोगिता भा गई। पहली ही नजर में
संयोगिता ने भी अपना सर्वस्व पृथ्वीराज को दे दिया, परन्तु दोनों का मिलन
इतना सहज न था। महाराज जयचंद और पृथ्वीराज चौहान में कट्टर दुश्मनी थी।
राजकुमारी संयोगिता का स्वयंवर आयोजित किया गया, जिसमें पृथ्वीराज चौहान
को नहीं बुलाया गया तथा उनका अपमान करने हेतु दरबान के स्थान पर उनकी
प्रतिमा लगाई गई। ठीक वक्त पर पहुँचकर संयोगिता की सहमति से महाराज
पृथ्वीराज उसका अपहरण करते हैं और मीलों का सफर एक ही घोड़े पर तय कर दोनों
अपनी राजधानी पहुँचकर विवाह करते हैं। जयचंद के सिपाही बाल भी बाँका नहीं
कर पाते।
उसकी आँखें गरम सलाखों से जला दी गईं। अंत में पृथ्वीराज के अभिन्न सखा
चंद बरदाई ने योजना बनाई। पृथ्वीराज शब्द भेदी बाण छोड़ने में माहिर सूरमा
था। चंद बरदाई ने गोरी तक इसकी इस कला के प्रदर्शन की बात पहुँचाई। गोरी ने
मंजूरी दे दी। प्रदर्शन के दौरान गोरी के शाबास लफ्ज के उद्घोष के साथ ही
भरी महफिल में अंधे पृथ्वीराज ने गोरी को शब्दभेदी बाण से मार गिराया तथा
इसके पश्चात दुश्मन के हाथ दुर्गति से बचने के लिए दोनों ने एक-दूसरे का वध
कर दिया।
अमर प्रेमिका संयोगिता को जब इसकी जानकारी मिली तो वह भी वीरांगना की
भाँति सती हो गई। दोनों की दास्तान प्रेमग्रंथ में अमिट अक्षरों से लिखी
गई।
राजनैतिक नीति
पृथ्वीराज ने अपने समय के विदेशी आक्रमणकारी मुहम्मद गौरी को कई बार
पराजित किया। युवा पृथ्वीराज ने आरम्भ से ही साम्राज्य विस्तार की नीति
अपनाई। पहले अपने सगे-सम्बन्धियों के विरोध को समाप्त कर उसने राजस्थान के
कई छोटे राज्यों को अपने क़ब्ज़े में कर लिया। फिर उसने बुंदेलखण्ड पर
चढ़ाई की तथा महोबा के निकट एक युद्ध में चदेलों को पराजित किया। इसी युद्ध
में प्रसिद्ध भाइयों, आल्हा और ऊदल ने महोबा को बचाने के लिए अपनी जान दे
दी। पृथ्वीराज ने उन्हें पराजित करने के बावजूद उनके राज्य को नहीं हड़पा।
इसके बाद उसने गुजरात पर आक्रमण किया, पर गुजरात के शासक 'भीम द्वितीय' ने,
जो पहले मुइज्जुद्दीन मुहम्मद को पराजित कर चुका था, पृथ्वीराज को मात दी।
इस पराजय से बाध्य होकर पृथ्वीराज को पंजाब तथा गंगा घाटी की ओर मुड़ना
पड़ा।
जयचंद्र का विद्वेश
कन्नौज का राजा जयचंद्र पृथ्वीराज की वृद्धि के कारण उससे ईर्ष्या करने
लगा था। वह उसका विद्वेषी हो गया था। उन युद्धों से पहिले पृथ्वीराज कई
हिन्दू राजाओं से लड़ाइयाँ कर चुका था। चंदेल राजाओं को पराजित करने में
उसे अपने कई विख्यात सेनानायकों और वीरों को खोना पड़ा था। जयचंद्र के साथ
होने वाले संघर्ष में भी उसके बहुत से वीरों की हानि हुई थी। फिर उन दिनों
पृथ्वीराज अपने वृद्ध मन्त्री पर राज्य भार छोड़ कर स्वयं संयोगिता के साथ
विलास क्रीड़ा में लगा हुआ था। उन सब कारणों से उसकी सैन्य शक्ति अधिक
प्रभावशालिनी नहीं थी, फिर भी उसने गौरी के दाँत खट्टे कर दिये थे।
सं. ११९१ में जब पृथ्वीराज से मुहम्मद गौरी की विशाल सेना का सामना हुआ,
तब राजपूत वीरों की विकट मार से मुसलमान सैनिकों के पैर उखड़ गये। स्वयं
गौरी भी पृथ्वीराज के अनुज के प्रहार से बुरी तरह घायल हो गया था। यदि उसका
खिलजी सेवक उसे घोड़े पर डाल कर युद्ध भूमि से भगाकर न ले जाता, तो वहीं
उसके प्राण पखेरू उड़ जाते। उस युद्ध में गौरी की भारी पराजय हुई थी और उसे
भीषण हानि उठाकर भारत भूमि से भागना पड़ा था। भारतीय राजा के विरुद्ध
युद्ध अभियान में यह उसकी दूसरी बड़ी पराजय थी, जो अन्हिलवाड़ा के युद्ध के
बाद सहनी पड़ी थी। (kramasha)