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Wednesday, May 12, 2010
नारी शिक्षा का प्रसार जरूरी ( सम्पादकीय "चौहान चेतना")
२१ वीं सदी की महिलाओं को 'सदी की महिलाऐं' कहकर निश्चय ही पुरुष प्रधान समाज ने उसे सम्मान देने की कोशिश की है। इस सदी के प्रारंभिक चरण में नारी उत्थान के उद्देश्य से महिला सशक्तिकरण जैसी योजना को विशेष महत्त्व दिया जा रहा है। परन्तु आज भी गाँव में नारी की दशा देखकर उसके सुधार के पक्ष में उठाए गए क़दमों की औचित्यहीनता पर सवाल खड़े हो जाते हैं। हकीकत इस तथ्य के कोसों करीब नहीं है। मीडिया का उपयोग कर ग्रामीणों में जाग्रति लाने की असफल कोशिश जारी है। विशेषकर नारी शिक्षा के प्रति लोगों की सोच तो जैसे कुंद ही हो चुकी है। साधन-संपन्न परिवार वाले भी अपनी बेटियों को बड़ी मुश्किल से कक्षा ५ या ८ तक पढ़ाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझते हैं। इस बारे में उनकी राय जानो तो कहते हैं की 'जब एक से एक पढ़े लिखे रोजगार की तलाश में खाक छानते फिरते हैं तो फिर ऐसे में लड़कियों को ज्यादा पढ़ाने से क्या फायदा।' उनका शिक्षा से तात्पर्य नौकरी से होता है, जो आज के बदलते दौर में बहुत घातक सोच कही जा सकती है। शिक्षा तो इन्सान की मूलभूत आवश्यकता है, यही उसके जीवन की पहली सीढ़ी का काम करती रहे। शिक्षा का मतलब नौकरी जैसी सोच से परहेज करें और जीवन में शिक्षा के महत्त्व को स्वीकारें। लड़कियों को उचित शिक्षा देकर इस योग्य बनायें ताकि वे भविष्य में किसी भी मुश्किल का साहसपूर्वक सामना कर सकें। नारी शिक्षा के प्रसार से ही दहेज़ जैसी सामाजिक बुरे को रोकने में तथा आगे आने वाली पीढ़ी को शिक्षित करने में सफलता मिलेगी। शिक्षित नारी का दायित्व - वर्तमान में यदि शिक्षित महिलाऐं अपनी क्षमता का सही उपयोग करें तो उनका कर्तव्य बन जाता है की वे परंपरा और रूढ़ियों के बोझ में दबी भारतीय नारी को उस दुखद स्थिति से उबारने के लिए ईमानदारी से प्रयत्न करें। पर अनुकरण वृत्ति का अभिशाप कहें या आधुनिकता का दंभ, तथाकथित प्रगतिशील स्त्रियाँ उनकी तरफ देखना भी नहीं चाहती, उनसे बात करना या उन्हें सहयोग देना तो दूर रहा। विवेक बुद्धि से लिए गए निर्णय और उन्हें क्रियान्वित करने का साहस यदि रूढ़ियों से बंधने वाली नारी की विशेषता बनता तो महिलाऐं शाश्क्ति-स्वरूपा बनकर सामने आतीं। शिक्षित आधुनिका नारी जहाँ परंपरा के अंधविरोध और प्रक्रिया से ग्रस्त है, वहीँ अशिक्षित परंपरा भक्त नारी लम्बे समय से चले आ रहे रीति-रिवाजों से चिपके रहने में ही भलाई देखती है। प्रगतिशीलता के नाम पर इन दोनों का अन्धानुकरण न किया जाए बल्कि उन महिलाओं को ऊंचा उठाने की कोशिश की जाए जो आर्थिक तंगी के चलते हासिये पर जा रही हैं या जो समय के साथ जीने को विवश हो रही है- सुक्खनलाल सिंह चौहान, संपादक- 'चौहान चेतना'
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