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Sunday, April 24, 2011

संपादकीय, अंक- जनवरी, फ़रवरी, मार्च २०११

पत्रिका प्रकाशन : अतीत से अब तक 

सभी स्वजाति बंधुओं, पत्रिका सदस्यों, पाठकों, लेखकों, कवियों, एवं विज्ञापनदाताओं को नव्-वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ. 
           बिरादरी समाज में १९७५ के दशक में राजनैतिक-सामाजिक चेतना तथा समाज की गतिविधियों, मीटिंगों, गोष्ठी, सम्मलेन आदि की जानकारी देने के लिए कोई उचित माध्यम नहीं था. उस समय तक समाज का कोई नेता सांसद-विधायक नहीं होता था. किसी को बिरादरी की सही-सही या  अनुमानित   जनसँख्या    का पता  नहीं था. लगता  था हमारी बिरादरी मात्र  ४-६   जिलो  तक ही सीमित  है, उस पर भी कुछ घरों की जानकारी हुआ करती थी. इन जगहों में कहीं-कहीं, कभी-कभी मीटिंग होती रहती थी. जिसके प्रचार-प्रचार के अभाव या हमारी ही जानकारी के अभाव में एक-दुसरे से परिचय, मेलजोल कम हो पाता था. हम कम  संख्या में हैं, गरीब- मजदूर-अल्पशिक्षित या जो भी हैं- असंगठित हैं. बगैर प्रचार-प्रसार या संगठन के हम कोई बड़ा या अच्छा काम नहीं कर सकते. समाज में न तो कोई जागरूकता है, न चेतना. आगे बढ़ने का, विकास कोई रास्ता समझ नहीं आ रहा था की चेतना यात्रा कहाँ से प्रारंभ की जाए. हाँ, इस बात की चिंता समाज के कुछ बुद्धिजीवी वर्ग को जरूर थी. इसी वर्ग के सोच और विचार को लेकर १९७६ में कानपूर में मीटिंग और सभाओं का दौर चला. एक मीटिंग का आयोजन श्री बी. एल. सिंह के यहाँ भी हुआ, जिसमें समाज के बहुत से लोगों की उपस्थिति रही और  निर्णय  हुआ  कि एक पत्रिका निकाली जाये, जो प्रचार-प्रसार के साथ हम सब के बीच सेतु का कम करे. आखिरकार सब की सहमति से  'राजपूत मर्यादा' नमक पत्रिका सर्व  श्री माताबदल आर्य, सुक्खनलाल चौहान, अंगनूसिंह, कुंवरसिंह, लल्लुसिंह, निरंजन सिंह, मोती सिंह, धर्मदेव शास्त्री, राजाराम सिंह, तारा सिंह, अदि लोगों के सहयोग से प्रकाशित होने लगी. मुद्रण का कार्य महेश्वरी प्रेस, बांदा में ही होता था. कई वर्षों के सफल प्रकाशन के बाद कुछ कारणोंवश  पत्रिका बांदा की जगह कानपूर में मुद्रित/प्रकाशित होने लगी. इसके बाद समाजसेवा का संकल्प लेते हुए कालांतर में राजपूत परिचायिका,  रनथंभोरी क्षत्रिय वंशावली व् परिचायिका, सम्राट प्रथ्वीराज चौहान की गौरवगाथा, मंगल-सम्बन्ध और अब १० वर्षों से लगातार प्रकाशित होने वाली पत्रिका चौहान चेतना के प्रकाशन से हमारी समाज सेवा हो रही है. परिणाम आप सबके सामने है- सम्पूर्ण भारत में रहने वाले बिरादरी के लोगों की जानकारी हुई, समाज में चेतना-जागरूकता आई, परिचय-मेलजोल बाधा, दूर-दूर तक शादी-सम्बन्ध हुए, सभी ने एक-दूसरे की भावनाओं तथा सामाजिक समस्याओं  को समझा, साथी ही सामाजिक-राजनैतिक चेतना भी बढ़ी. लोगों के आचार-विचार, सोच में बदलाव आया है, विकास के नए-नए रास्ते खुले हैं., आशा-उत्साह का संचार हुआ है, आपसी विश्वास बाधा है. अब आगे-आगे देखिये होता है क्या? अगले अंक में नै ख़बरों के साथ फिर मिलेंगे. जय हिंद, जय समाज.  सुक्खनलाल चौहान संपादक  

Wednesday, April 13, 2011

सामाजिक जागरूकता

         सामाजिक जागरूकता/चेतना का मतलब है जाग्रत अवस्था में रहना,  जागते हुए भी हमारा अन्तःकरण कुंठित  है, हमारा विवेक काम नहीं करताहै, हमारे सोचने का दायरा बहुत संकुचित रहता है, हम अपने इर्द-गिर्द अन्य समाज के लोगों को देखकर उनसे प्रेरणा नहीं लेते हैं, हम जितने में है उससे  ऊपर की नहीं सोचते. हमारा मोरल दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा है. हम क्यों नहीं  बड़े-बड़े सपने देखते हैं. भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति डा. अब्दुल कलाम कहते हैं की हमें बड़े से बड़ा सपना देखना चाहिए और उसे साकार करने की लिए निरंतर कठिन परिश्रम करना चाहिए. मैं मानता हूँ कि इस संसार में किसी काम के लिए पैसे ली जरूरत पड़ती है, पैसा बहुत कुछ है लेकिन पैसा सब कुछ नहीं है. वर्तमान में योग और अध्यात्म के शिखर पर पहुँचने वाले स्वामी रामदेव जी सोलह  साल कि उम्र में जब घर से निकले थे तो उनके पास सिर्फ ३०० रु थे लेकिन आज दुनिया में उनको कौन नहीं जानता. उन्होंने सम्पूर्ण भारतवर्ष को २०२० तक एक बार फिर से सोने कि चिड़िया बनाने का सन्देश  दिया  है. ऐसे अवसरों के लिए भी हमेशा संगठित और जाग्रत रहना पड़ेगा  क्यों कि ऐसा न हो कि हम हमेशा कि तरह आखिरी लाइन में खड़े रहें और किसी तरह का सामाजिक लाभ मिलने से वंचित हो जाएँ. किसी भी काम को करने के लिए दृढ संकल्प होना चाहिए. बड़ी सोच, कड़ी मेहनत, पक्का इरादा आपको उन्नति कि छोटी पर ले जा सकता है, यह जरूर है कि आपको समय-समय पर मार्गदर्शन, सहयोग, अर्थ कि आवश्यकता पड़ सकती है. जिसके लिए समाज के अग्रणी, विशिष्ट लोगों को आज आगे आना पड़ेगा. हम अपने समाज के बच्चों को कभी भी हीनभावना का शिकार न होने दें बल्कि उनमें इतनी उर्जा, आत्मगौरव का भाव भर दें कि वे अपना मार्ग खुद प्रशस्त करने लायक हो जाएँ. वे किसी पर आश्रित न हों और किसी के बहकावे में न आएं. हमारे समाज में कम उम्र के बच्चों पर कोई ध्यान नहीं देता जब कि ८० प्रतिशत बच्चों का आइ. क्यु. पाँच वर्ष कि आयु में ही पूरा हो जाता है. बाकि २० प्रतिशत पूरे जीवन में संचित हो जाता है. अगर हमें अपनी अगली पीढ़ी को सुधारना है तो अपने पाँच वर्ष तक के बच्चों पर विशेष ध्यान देना होगा. उनके रहन-सहन, खान-पान, स्वास्थ्य एवं विकास कि समुचित व्यवस्था करनी पड़ेगी. यहीं से हमारे सुयोग्य समाज का निर्माण शुरू होता है. कहावत है- (चाइल्ड इस दि फादर आफ  मेन) - बच्चा बड़ा होकर बाप बनता है. जैसा बच्चा होगा, वैसे ही समाज कि संरचना होगी. तो आइये, हम अपने नन्हे-मुन्नों के लालन-पालन में भरपूर ध्यान दें जिससे उनका सर्वांगीण विकास हो सके. जिससे वे बड़े होकर समाज कि रचना करें और हमारा अगला समाज किसी दूसरे के आगे अपने को कमजोर या लाचार महसूस न करे. सभी के सामने कंधे से कन्धा मिलाकर उनमें चलने कि शक्ति हो, तीव्र बुद्धि हो, पूर्ण विकास हो और उनमें समाज मे ही नहीं बल्कि देश कि बड़ी से बड़ी ऊँचाइयों को छूने कि शक्ति हो, ताकत और बुद्धि हो. मैं यह तो नहीं जानता कि हमारा समाज कब सुधरेगा लेकिन उसके  प्रवर्तक और कार्यवाहक हमारे भावी नन्हे-मुन्ने ही होंगे.           _ अर्जुन सिंह, सेवानिवृत्त रेल इंजिनियर , वाराणसी

Sunday, April 10, 2011

देश की आज़ादी में बलिदान हुए चौहान..

प्रथम घटना- सन १८५८ की घटना है- अंग्रेज़ अधिकारी (सार्जेंट) जिसका नाम बिगुट था, वाराणसी-लखनऊ मार्ग से होकर अपने किसी काम से सैनिकों सहित कहीं जा रहा था की वाराणसी से लगभग ५० कि.  मी. कि दूरी पर  ग्राम हौज़, जिला- जोनपुर के पास अंग्रेजों को देश का दुश्मन मानते हुए स्थानीय ग्राम के चौहान समाज के लोगों ने बल्लम, फरसा, कुदाल, लाठी-डंडा, गडासा, हंसिया आदि लेकर अंग्रेजी सेना को घेर लिया, दोनों ओर से भीषण संग्राम हुआ, जिसमें अंग्रेज़ अधिकारी बुगेट सहित कई अंग्रेज़ सैनिक मरे गए. इस घटना के प्रतिरोध स्वरुप अंग्रेजों द्वारा गाँव में पहुंचकर चौहान बहुल स्थानों पर यातना-अत्याचार शुरू कर दिए गए, कोड़ों से पीटना, जूते से ठोकर मरना, बंदूकों कि बट मरना, पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं, बच्चों से भी गाली-गलोच करना, अभद्र व्यव्हार करने जैसी बातें आम हो गईं. इसीके साथ समाज के लोगों कि गिरफ्तारियां हुईं, आनन-फानन मुकदमा चला और बगावत के अपराध में १६ लोगों को महुआ के पेड़ पर लटकाकर अलग-अलग तारीखों में फँसी दे दी गई. आखिरकार आज़ादी कि वकालत करने वाले इन वीरों को पुरस्कारों में मिले भी तो क्या ? कोड़ों कि मार, फांसी, गोली, जेल और काला  पानी. 
                   चौहान समाज के देश के लिए कुर्बान जिन शहीदों को फांसी दी गई उनके नाम इस प्रकार हैं- 
क्रम             नाम                            फांसी की तारीख 
 १       स्व.सुक्खी पुत्र इंदरमन       ०५.०६. १८५८ 
२      स्व. परसन                                   "
३      स्व. मान                                      "
४      स्व. रामेश्वर                                 "
६       स्व. सुखलाल                              "
५        स्व. रामदीन                              "                                                                   
७     स्व.   इंदरमन                       ०७.०६.१८५८ 

८     स्व.    शिवदीन                             "
९      स्व. बरन                                      "
१०    स्व. ठकुरीम                                "
११     स्व. बाबर                              ०८. ०६. १८५८ 
१२    स्व. सुक्खू                              ०८. ०६. १८५८ 
१३    स्व. मातादीन                         १५. ०६ १८५८ 
१४    स्व. शिवपाल                                "
१५    स्व.  बालदत्त                        १३.०२. १८६० 
१६    स्व. गोवर्धन                         ०८. ०६ १८५८   
             सन २००१ के आसपास  इस लेख में उल्लेखित महुआ का पेड़ आंधी  में गिर गया. उपरोक्त शहीदों को अलग-अलग फांसी देने का कारण  अंग्रेजों द्वारा अपनी बर्बरता तथा आतंक की छाप छोड़ना था, ताकि आमजन इसे लम्बे समय तक याद रखें और दुबारा अंग्रेजों के साथ ऐसी पुनरावृत्ति न हो व् ऐसी घटना को अंजाम देने वाले एक बारगी  उनके ज़ुल्मों-सितम को याद करें, ऐसा अंग्रेजों का सोचना था. हम इन शहीदों को लाल सलाम करते हैं तथा चौहान समाज के ऐसे सदस्य जो की देश में उच्च राजनैतिक पदों पर आसीन हैं, आधिकारिक पदों पर विराजमान हैं- इन शहीदों की पीढियां जो की आज भी जीवित हैं उनके लिए कुछ करें, यही एक सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
द्वितीय घटना- १६ अगस्त १९४२ की बात है, अंग्रेजी सेना (गोरी पलटन) वाराणसी से सड़क के रास्ते होकर लखनऊ  की  ओर जा रही थी, तभी वाराणसी-लखनऊ मार्ग पर वाराणसी से लगभग ८० क़ि. मी. दूर ग्राम- अगरौरा पड़ता है. यहाँ लोनिया-चौहान बिरादरी के लोग बहुतायत में  रहते हैं. इन लोगों को यह पता चलते ही क़ि अंग्रेजी सेना लखनऊ क़ि ओर जा रही है. ग्रामीणों में यकायक जोश जाग उठा और गाँव के तमाम लोग अपने-अपने घरों से फावड़ा, कुदाल, सब्बल, लाठी-डंडा आदि देहाती अस्त्र-शास्त्र औजार लेकर ग्राम- अगरौरा के समीप बने पुल जिसे लोह 'धनिया मऊ पुल' के नाम से जानते हैं, को तोड़ने लगे. ताकि अंग्रेजी सेना अपने गंतव्य क़ि ओर आगे न बढ़ सके. अँगरेज़ सैनिक यह देखते ही आग-बबूला हो गए क़ि साधारण सेगंवई-मजदूर दिखने वाले लोगों में कैसी यह हिम्मत ? जो अंग्रेजी सेना को आगे बढ़ने से रोक रहे रहें, उनके रास्ते में बाधा बन रहें हैं. देखते-देखते साधारण देशी हथियारों से लैस ग्रामीण और बंदूकों से लैस अंग्रेजी सैनिकों के मध्य भरी मरकत शुरू हो गई. अंग्रेजी अधिकारिओं ने गोली चलवा दी , आखिरकार लाठी-डंडे वाले ग्रामीण इन गोली-बंदूकों से कब तक मुकाबला करते? गोली-कांड से ग्रामीणों में भगदड़ मच गई, कई लोग ज़ख़्मी हुए, कई गंभीर रूप से घायल. इसी संग्राम में पुल तोड़ते समय रामपदारथ चौहान, एक कहर जाती का व्यक्ति तथा ठाकुर का लड़का( नाम अज्ञात) जो साईकल से   स्कूल  जा रहा था, क़ि अंग्रेजों द्वारा चलाई गई गोली का शिकार हो गए और तीन भारत माँ क़ि गोद में सदा-सदा के लिए सो गए. शेष बचे हुए लोग जन बचाकर भाग गए. 
              अंग्रेजों ने मामले को गंभीरता से लिया और ग्रामीणों क़ि गिरफ़्तारी के लिए अभियब तेज कर दिया. अततः कुछ गद्दार मुखबिरों क़ि सुचना पर २३ अगस्त १९४२ को चौहानों में प्रमुख तेज  तर्रार युवा रामानन्द चौहान और रघुराई चौहान गिरफ्तार कर लिए गए, जिन्हें अंग्रेजी सेना से लोहा लेने व् बगावत करने के जुर्म में एक सप्ताह के अन्दर दोनों व्यक्तियों को 'चिलबिल के पेड़' में फँसी दे दी गई ताकि अंग्रेजों से लोहा लेने क़ि कोई गुस्ताखी न कर सके. अंग्रेजों का हुक्म हुआ क़ि तीन दिन तक ये लाशें पेड़ से नहीं उतारी जाएंगी, जिस किसी ने ऐसा करने क़ि जुर्रत क़ि तो उसका भी यही हश्र होगा. पेड़ पर  झूलती लाशों क़ि सुरक्षा में अंग्रेज अधिकारिओं द्वारा सैनिक पहरा लगा दिया गया ताकि लोग इन लाशों को दूर से देखें परन्तु पास न आएं , न लाश उतारें. इस आतंक और दहशत के चलते कोई ग्रामीण या उसके घर के लोग लाश उतारने क़ि हिम्मत नहीं कर सके. क्रूरता-बर्बरता क़ि इस घटना को देखने के लिए आँखों में आंसू लिए आसपास के हजारो ग्रामीणों ने अपनी मूक श्रद्धांजलि दी और अंग्रेजों क़ि इस दमनकारी नीति का पुरजोर विरोध किया. 
              तत्कालीन समय गोली-कांड के शिकार हुए रामपदारथ चौहान की शादी के कुछ ही समय हुए थे क़ि यौनावस्था क़ि दहलीज़ पर पैर रखते ही उनकी पत्नी विधवा हो गई. उनके एक मात्र पुत्र जिसका नाम अच्छे
लाल  चौहान था , उस समय केवल ६ माह का नन्हा बालक था. दहशत और बदहवास क़ि स्थिति में रामपदारथ चौहान क़ि पत्नी बच्चे के पालन-पोषण एवं सुरक्षा क़ि दृष्टि से अपने मायके मुस्तफाबाद चली आईं, यहाँ नाना-नानी के मध्य रहकर बच्चे का पालन-पोषण हुआ. 

              इस घटना क़ि याद में चौहान बिरादरी के लोग प्रतिवर्ष इस बूढ़े 'चिलबिल के दरख़्त' के नीचे जुड़ते और रामपदारथ चौहान, रामानन्द चौहान, तथा रघुराई चौहान व् एनी क़ि शहादत पर अपनी आँखें नम कर के श्रद्धान्जली  देते थे. लेकिन समाजिक जागरूकता के अभाव में फांसी  के मौन गवाह बने 'चिलबिल के पेड़' को स्थानीय यादव व्यक्ति द्वारा सन १९७० के आसपास थोड़े से लालच के लिए उस पेड़ को कटवाकर बेच दिया गया. लोगों ने इस पेड़ काटने का थोडा-बहुत विरोध किया, लेकिन लकडहारा यादव दबंग होने के कारन स्थानीय लोग सशक्त तरीके से विरोध नहीं कर पाए और फांसी का वह निशान हमेशा-हमेशा के लिए मिट गया.
                    _मनोहर सिंह एडवोकेट, महेंद्र प्रताप चौहान, निवासी- आज़मगढ़ द्वारा उपलब्ध जानकारी पर आधारित