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Sunday, November 27, 2011

विवाह में सात फेरे ही क्यों ! (अंक-जुलाई,अगस्त,सितम्बर २०११)

इंसानी जिंदगी में विवाह एक बेहद महत्वपूर्ण घटना है. इसमें दो इन्सान जीवन भर साथ में मिलकर धर्म के रास्ते से जीवन लक्ष्य की प्राप्ति का प्रयास करते हैं. हर परिस्थिति में एक-दूसरे का साथ निभाने का संकल्प लिया जाता है. संकल्प या वचन सदैव देव-स्थानों या देवताओं की उपस्थिति में लेने का प्रावधान होता है. इसीलिए विवाह के सात फेरे वचन अग्नि के सामने लिए जाते हैं. फेरे सात ही क्यों लिए जाते है? इसका कारण सात की महत्ता  है. शास्त्रों में सात के
बजाय चार  फेरों का वर्णन भी मिलता है तथा चार फेरों में से तीन में दुल्हन तथा एक में दूल्हा आगे रहता है. वर्तमान में हिन्दू संस्कृति से होने वाले में सात फेरों का ही प्रचलन है. बगैर सप्तपदी के विवाह अधूरा माना जाता है. हमारे जीवन जगत और विवाह में इस सात अंकों का विशेष महत्त्व क्यों और कैसे है, आइये जानें--- सूर्य के प्रकाश में रंगों की संख्या  भी सात होती है, संगीत में भी सात स्वर होते हैं- सा, रे, गा, माँ, प् ध, नि. पृथ्वी  सहित  लोकों की संख्या भी सात  है. द्वीपों तथा समुद्रों की संख्या भी सात ही है. प्रमुख पदार्थ भी सात ही हैं- गोरोचन, चन्दन, स्वर्ण, शंख,  दर्पण  और मणि जो की शुद्ध माने जाते हैं. प्रमुख क्रियाएँ भी सात ही  हैं- शौच, मुखशुद्धि,स्नान, ध्यान, भोजन आदि,  नित्य पूज्यनीय जनों की संख्या भी सात है- ईश्वर, गुरु, माता, पिता, सूर्य, अग्नि तथा अतिथि. इंसानी बुराइयों की संख्या भी सात है, यथा- ईर्ष्या, क्रोध, मोह, घृणा, तथा कुविचार आदि.  वेदों के अनुसार सात तरह के स्नान मन्त्र हैं- स्नान भौम, स्नान अग्नि, स्नावाल्य, स्नान दिव्य, स्नान करुण, और मानसिक स्नान.
                    सात अंक की इस रहस्यात्मक  महत्ता के कारण ही प्राचीन ऋषि-मुनियों या नीति-निर्माताओं ने विवाह में सात फेरों को शामिल किया है. अपने परिजनों, सम्बन्धियों और मित्रों की उपस्थिति में वर-वधु देवतुल्य अग्नि की सात परिक्रमा करते हैं   कि हमारा प्रेम सात समुद्रों जितना गहरा  हो. हर दिन उसमें सात स्वरों का माधुर्य हो. दाम्पत्य में जीवन के सातों रंगों का प्रकाश फैले. दोनों नवयुगल एक होकर इतने सद्कर्म करें कि हमारी ख्याति सातों लोकों में सदैव बनी रहे.....          ओमप्रकाश चौहान, इंदौर

सेवाभाव (अंक-जुलाई,अगस्त,सितम्बर २०११)

मानव होने के नाते जब तक हम एक-दूसरे के दुःख-दर्द में साथ नहीं निभाएँगे तब तक इस जीवन की सार्थकता सिद्ध नहीं होगी. वैसे तो हमारा परिवार भी समाज की ही एक इकाई है, किन्तु इतने तक ही सीमित रहने से सामाजिकता का उद्देश्य पूरा नहीं होता. हमारे जीवन का अर्थ तभी पूरा होगा जब हम समाज को ही परिवार माने. 'वसुधैव कुटुम्बकम' की भावना को हम जितना अधिक से अधिक विस्तार देंगे, उतनी ही समाज में सुख-शांति और समृद्धि फैलेगी. मानव होने के नाते एक-दूसरे के काम आना भी हमारा प्रथम कर्तव्य है. हमें अपने सुख के साथ-साथ दुसरे के सुख का भी ध्यान रखना चाहिए. अगर हम सहनशीलता, संयम, धैर्य, सहानुभूति, और प्रेम को आत्मसात करना चाहें तो इसके लिए हमें संकीर्ण मनोवृत्तियों को छोड़ना होगा. धन,  संपत्ति और वैभव का सदुपयोग तभी है जब उसके साथ-साथ दूसरे भी इसका लाभ उठा सकें. आत्मोन्नति के लिए इश्वर प्रदत्त जो गुण सदैव हमारे रहता है वह है सेवाभाव.  जब तक  सेवाभाव को जीवन में पर्याप्त स्थान नहीं दिया जाएगा तब तक आत्मोन्नति का मार्ग प्रशस्त नहीं हो सकता. मानव जीवन में सुख व् दुःख प्रथक नहीं हैं, उन्हें आत्मसात करना ही है. इनके साथ जीवन में समायोजन करना है. यह मानव प्रकृत्ति है की जब हम दूसरों को सुखी देखते हैं तो हमारा दुःख कम होता है और जब दूसरों को सुखी देखते हैं तो यह जानने की चेष्टा भी नहीं करते की उसके सुखी होने का कारण क्या है? बल्कि कुछ लोगों को ईर्ष्या भी होने लगती है. अपने पुरुषार्थ और परिश्रम द्वारा सुख प्राप्त करने से स्थायी सुख-शांति तथा आत्म-संतोष होता है. किसी के सहारे सुख अर्जित कर लेने से कुछ समय के लिए तो सुखानुभूति होगी, किन्तु उसका अंत दुखद या विपरीत परिस्थितियों ही होंगी. अतः सुख-दुःख को समान समझकर हमें संयम, धैर्य एवं आत्मीयता का अनुपालन करना चाहिए. कहा भी गया है की भलाई करने से  भलाई मिलती है  और बुराई करने से बुराई मिलती है........ डा. राजेंद्र जी  (अंक-जुलाई,अगस्त,सितम्बर २०११)