मानव होने के नाते जब तक हम एक-दूसरे के दुःख-दर्द में साथ नहीं निभाएँगे तब तक इस जीवन की सार्थकता सिद्ध नहीं होगी. वैसे तो हमारा परिवार भी समाज की ही एक इकाई है, किन्तु इतने तक ही सीमित रहने से सामाजिकता का उद्देश्य पूरा नहीं होता. हमारे जीवन का अर्थ तभी पूरा होगा जब हम समाज को ही परिवार माने. 'वसुधैव कुटुम्बकम' की भावना को हम जितना अधिक से अधिक विस्तार देंगे, उतनी ही समाज में सुख-शांति और समृद्धि फैलेगी. मानव होने के नाते एक-दूसरे के काम आना भी हमारा प्रथम कर्तव्य है. हमें अपने सुख के साथ-साथ दुसरे के सुख का भी ध्यान रखना चाहिए. अगर हम सहनशीलता, संयम, धैर्य, सहानुभूति, और प्रेम को आत्मसात करना चाहें तो इसके लिए हमें संकीर्ण मनोवृत्तियों को छोड़ना होगा. धन, संपत्ति और वैभव का सदुपयोग तभी है जब उसके साथ-साथ दूसरे भी इसका लाभ उठा सकें. आत्मोन्नति के लिए इश्वर प्रदत्त जो गुण सदैव हमारे रहता है वह है सेवाभाव. जब तक सेवाभाव को जीवन में पर्याप्त स्थान नहीं दिया जाएगा तब तक आत्मोन्नति का मार्ग प्रशस्त नहीं हो सकता. मानव जीवन में सुख व् दुःख प्रथक नहीं हैं, उन्हें आत्मसात करना ही है. इनके साथ जीवन में समायोजन करना है. यह मानव प्रकृत्ति है की जब हम दूसरों को सुखी देखते हैं तो हमारा दुःख कम होता है और जब दूसरों को सुखी देखते हैं तो यह जानने की चेष्टा भी नहीं करते की उसके सुखी होने का कारण क्या है? बल्कि कुछ लोगों को ईर्ष्या भी होने लगती है. अपने पुरुषार्थ और परिश्रम द्वारा सुख प्राप्त करने से स्थायी सुख-शांति तथा आत्म-संतोष होता है. किसी के सहारे सुख अर्जित कर लेने से कुछ समय के लिए तो सुखानुभूति होगी, किन्तु उसका अंत दुखद या विपरीत परिस्थितियों ही होंगी. अतः सुख-दुःख को समान समझकर हमें संयम, धैर्य एवं आत्मीयता का अनुपालन करना चाहिए. कहा भी गया है की भलाई करने से भलाई मिलती है और बुराई करने से बुराई मिलती है........ डा. राजेंद्र जी (अंक-जुलाई,अगस्त,सितम्बर २०११)
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